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उदास चांद को तकता चला गया वो भी

घंटाघर
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qateel_shafai“किसी शायर के लिखने के अलग-अलग ढंग आपने बहुत सुने होंगे। ‘इकबाल’ के बारे में कहा जाता है कि वे फ़र्शी हुक़्क़ा भरकर पलंग पर लेट जाते थे और अपने मुंशी को शेर डिक्टेट करते थे। ‘जोश’ मलीहाबादी सुबह-सुबह लम्बी सैर को निकल जाते और प्राकृतिक दृश्यों से लिखने की प्रेरणा प्राप्त करते थे। लिखते समय बेतहाशा सिगरेट फूँकने चाय की केतली गर्म रखने और लिखने के साथ-साथ चाय की चुस्कियाँ लेने के बाद, यहाँ तक कि कुछ शायरों के सम्बन्ध में यह भी सुना होगा कि उनके दिमाग़ की गिरहें शराब के कई पैग पीने के बाद खुलनी शुरू होती हैं।” लेकिन आपने शायद ही सुना हो कि लिखने का मूड बनाने के लिए कोई शायर सुबह चार बजे उठकर बदन पर तेल की मालिश करता हो और फिर ताबड़तोड़ डंड-बैठक के बाद लिखने की मेज पर बैठता हो। ऐसा ‘क़तील’ शिफ़ाई के बारे में कहा जाता है।

‘क़तील’ शिफ़ाई के शेर लिखने के इस अन्दाज़ को और उनके लिखे शेरों को देखकर आश्चर्य होता है कि इस तरह लंगर-लँगोट कसकर लिखे गये शेरों में कैसे झरनों का-सा संगीत फूलों की-सी महक और उर्दू की परम्परागत शायरी के महबूब की कमर-जैसी लचक मिलती है। वह भी ऐसे वक़्त में जबकि उसके कमरे से ख़म ठोकने और पैंतरें बदलने की आवाज़ आनी चाहिए, जैसी गुनगुनाहट वहाँ के वातावरण में बसी होनी आम है।

क़तील शिफ़ाई अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनसे मेरा किताबी परिचय तो काफी पुराना था, लेकिन 90 के दशक में मेरी उनसे मुलाकात स्वामी रामतीर्थ केंद्र, सहारनपुर में हुई। यहां उर्दू पत्रकार शब्बीर शाद और रामतीर्थ केंद्र के संचालक पंडित केदार नाथ प्रभाकर ने ‘एक शाम-क़तील के नाम’ सजाई थी। तब उनसे बातचीत शुरू हुई और आधी रात तक सवाल-जवाब का सिलसिला चलता रहा था। मैंने उनसे हिंद-पाक बंटवारे पर बात शुरू की तो उनका दर्द आंसुओं में छलक रहा था। मैं शायर की प्रतिक्रिया भी शायराना ही चाहता था, सो क़तील साहब बोले-

ज़िंदगी के ग़म लाखों, चश्म-ए-नम तन्हा
हसरतों की मैयत पर रो रहे हैं हम तन्हा
इस तरफ तरसती हैं मस्जिदें अज़ानों को
उस तरफ शिवालों में रह गए सनम तन्हा

हालांकि मैं उनकी इस प्रतिक्रिया से सौ फीसदी सहमत नहीं था। तब मैंने उन्हें बताया था कि इस तरफ मस्जिदें अज़ानों को नहीं तरसती हैं, बल्कि हिंदुस्तान में मुस्लिमों को पूरी धार्मिक आज़ादी है। खैर हिंद-पाक पर फिर कभी लिखा जाएगा, अभी तो बात क़तील की शायरी की जारी रखी जाए तो बेहतर। मैंने क़तील साहब को उनका शेर याद दिलाया तो वो भी मान गए थे कि हिंद-पाक बटवारे पर इससे बेहतर प्रतिक्रिया वाकई नहीं हो सकती-

क़तील सिर्फ हमने ही कहां सितारे गिने
उदास चांद को तकता चला गया वो भी

जगजीत सिंह ने अपने अलग अलग एलबमों में उनकी कई ग़ज़लें गाई हैं जिसमें ज्यादातर ग़जलें इश्क़ मोहब्बत के अहसासों से भरपूर है। दरअसल प्रेम क़तील की अधिकांश ग़ज़लों और नज्मों का मुख्य विषय रहा है इसलिए उन्हें ‘मोहब्बतों का शायर’ भी कहा जाता है। बाद में विभिन्न शायरी मंचों में क़तील की कई और ग़ज़लें और नज़्में पढ़ने को मिलीं। क़तील की शायरी की खास बात ये है कि वो बशीर बद्र साहब की तरह ही बड़े सादे लफ्ज़ों का प्रयोग कर भी कमाल कर जाते हैं। मिसाल के तौर पर उनकी इस ग़ज़ल के चंद अशआर देखिए

प्यास वो दिल की बुझाने कभी आया भी नहीं
कैसा बादल है जिसका कोई साया भी नहीं
बेरुखी इस से बड़ी और भला क्या होगी
इक मुद्दत से हमें उसने सताया भी नहीं
सुन लिया कैसे ख़ुदा जाने ज़माने भर ने
वो फ़साना जो कभी हमने सुनाया भी नहीं
तुम तो शायर हो क़तील और वो इक आम सा शख़्स
उस ने चाहा भी मुझे और जताया भी नहीं

कितनी सहजता से कहे गए शेर जिसको पढ़ कर दिल अपने आप पुलकित हो जाता है। अगर मेरी बात पर अब तक यकीन नहीं आ रहा तो क़तील के इस अंदाजे बयाँ के बारे में आपका क्या खयाल है ?

गुज़रे दिनों की याद बरसती घटा लगे
गुज़रूँ जो उस गली से तो ठंडी हवा लगे
मेहमान बन के आये किसी रोज़ अगर वो शख़्स
उस रोज़ बिन सजाये मेरा घर सजा लगे
जब तशनगी की आखिरी हद पर मिले कोई
आँख उसकी जाम, बदन मयकदा लगे
मैं इस लिये मनाता नहीं वस्ल की ख़ुशी
मुझको रक़ीब की न कहीं बददुआ लगे
वो क़हत दोस्ती का पड़ा है कि इन दिनों
जो मुस्कुरा के बात करे आशना लगे
एक ऐसी खुशजमाल परी अपनी सोच है
जो सबके साथ रह के भी सब से जुदा लगे
देखा ये रंग बैठ के बहुरूपियों के बीच
अपने सिवा हर एक मुझे पारसा लगे
तर्क-ए-वफ़ा के बाद ये उस की अदा “क़तील”
मुझको सताये कोई तो उस को बुरा लगे

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