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13 फरवरी 2010 को पुणे के एक कैफे में आतंकियों ने विस्फोट कर फिर बेगुनाहों की जान ली है। 2008 में मुंबई पर 26/11 के आतंकी हमले के बाद यह पहला बड़ा हादसा था। इस आतंकी वारदात ने सुरक्षा के तमाम दावों को लेकर देश में फिर से बहस छेड़ दी है। कोई केंद्रीय खुफिया एजेंसियों पर दोष मढ़ रहा है तो कोई इन्हें क्लीन चिट देते हुए तर्क दे रहा है कि महाराष्ट्र सरकार को खुफिया एजेंसियों ने पहले ही सतर्क कर दिया था और ऐसे आतंकी हमलों की आशंका जता दी गई थी। बहरहाल 2008 में देशभर में 11 बड़े आतंकवादी हमले हुए थे। इन हमलों में 340 से ज्यादा लोगों की जानें गईं। पहले एक नज़र इन पर और फिर करेंगे बहस-
26 नवंबर 2008, मुबईःकम से कम 80 लोगों की मौत। एटीएस चीफ समेत 5 बड़े पुलिस अफसर और 6 पुलिसकर्मी शहीद। आतंकियों ने 10 जगह अंधाधुंध फायरिंग की। दो फाइव स्टार होटलों में सैकड़ों लोगों को बंधक बनाया।
30 अक्टूबर 2008, असमः18 सीरियल ब्लास्ट। 77 लोगों की मौत और 100 से ज्यादा घायल।
21 अक्टूबर 2008, इम्फालःपुलिस कमांडो कॉम्पलेक्स के सामने ब्लास्ट। 17 लोगों की मौत।
29 सितंबर 2008, मालेगांवःभीड़ भरे बाजार में खड़ी बाइक पर बम फटा। 5 लोगों की मौत।
29 सितंबर 2008, मोडासाःगुजरात के छोटे से कस्बे में बाजार में बम फटा। एक बच्चे की मौत।
27 सितंबर 2008, दिल्लीःमहरौली के बाजार में बाइक सवारों ने बम फेंका। 3 लोगों की मौत।
13 सितंबर 2008, दिल्लीःशहर में कई जगह 6 ब्लास्ट। 26 लोगों की मौत।
26 जुलाई 2008 , अहमदाबादःदो घंटों के भीतर 20 जगह बम ब्लास्ट। 57 लोगों की मौत।
25 जुलाई 2008, बेंगलुरुःकम क्षमता के बम विस्फोट में एक व्यक्ति की मौत।
13 मई 2008, जयपुरःसीरियल बम ब्लास्ट में 68 लोगों की मौत।
जनवरी 2008, रामपुरःसीआरपीएफ कैंप पर आतंकवादियों की अंधाधुंध फायरिंग। 8 जवानों की मौत।
पुणे में विस्फोट के बाद तमाम मीडिया माध्यमों पर यही बहस छिड़ी है कि विस्फोट किसकी विफलता है? इस सवाल का आधार है कि जब खुफिया एजेंसियां पहले आगाह कर चुकी थीं तो फिर सुरक्षा व्यवस्था माकूल क्यों नहीं थी? इसी बहस में यह बिंदु उभरता है कि सुरक्षा व्यवस्था तो थी लेकिन ‘माई नेम इज़ खान’ की रिलीजिंग के दौरान अर्द्धसैनिक बलों को सिनेमा हॉल्स और मल्टीप्लेक्सों में लगा दिया गया था। यह विवाद पाकिस्तानी क्रिकेटरों को लेकर शाहरुख खान द्वारा दिये गये बयान पर शिवसेना और मनसे के विरोधी वक्तव्य के बाद शुरू हुआ। यानी निचोड़ यह कि पुख्ता इनपुट और जानकारी के बाद राज्य सरकार ने अतिसंवेदनशील इलाकों से सुरक्षा व्यवस्था को एक फिल्म की खातिर हटा लिया। राष्ट्र के सामने अब बड़ा सवाल ये है कि आख़िर राष्ट्रीय सुरक्षा बड़ी या राजनीतिक विवाद? ऊपर 2008 के आतंकी हमलों और उनमें मारे गये 340 से ज्यादा लोगों का आंकड़ा गिनाने का मेरा यही मक़सद है कि हम इन्हें भूल गये और यह भी भूल गये कि फिर ऐसे हमले हो सकते हैं। तब भी भूल गये जब खुफिया एजेंसियां इनपुट में आगाह कर रही हों कि मुंबई जैसे हमले हो सकते हैं। इसलिए भूल गये कि राष्ट्र सुरक्षा से बढ़कर ‘माई नेम इज़ खान’ की सुरक्षा है। फिल्म पिट जाती, पर्दे फट जाते या इसकी रिलीजिंग टल जाती तो कोई बड़ा पहाड़ टूटने वाला नहीं था। मगर, पुणे में ब्लास्ट हो गया तो हमारी सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों पर उंगलियां उठने लगीं। यह जवाबदेही कोई नहीं करना चाहता कि नेताओं के लिए राष्ट्र सुरक्षा प्राथमिकता पर है या विवादित मुद्दे? हम आतंकवाद के खिलाफ एक अंतर्राष्ट्रीय मुहिम तैयार करने में लगे हैं लेकिन हम अपने ही घर के भीतर विवादित मुद्दों में उलझे हुए हैं।
सुरक्षा व्यवस्था में कहां रह जाती है कमी?
केंद्र सरकार कह रही है कि हमारे पास पुणे में हमले की सूचना थी। लेकिन इस पर एक आम आदमी के मन में यह सवाल उठता है कि अगर इतना कुछ पता था तो इन हमलों को रोका क्यों नहीं जा सका? दरअसल, कोई भी गुप्तचर एजेंसी कभी भी सौ फीसदी सूचना नहीं दे सकती है। मेरे एक बुद्धिजीवी मित्र ने सवाल उठाया, ‘जब यह कहा जाता है कि अमुक घटना के तार पाकिस्तान या बंगलादेश से जुड़े हैं तो मन में विचार आता है कि जब कोई पकड़ा ही नहीं गया तो कैसे तय हुआ कि साज़िश के पीछे कौन था?’ मेरा मत है कि घटना की जांच से तुरंत पता नहीं चलता कि इसे किसने अंजाम दिया, बल्कि पूर्व की घटनाओं और हमलों की विशेष प्रकृति के आधार पर किसी संगठन पर शक ज़ाहिर किया जाता है। आतंकी हमले अब संयुक्त तौर पर अंजाम दिए जाते हैं। जिनमें पाकिस्तान या बंगलादेश से अलग-अलग लोग आकर निर्देशों के मुताबिक अपना काम अंजाम देकर निकल लेते हैं। एक ही मिशन के लिए काम करते हुए भी ये लोग एक दूसरे से अनजान होते हैं।
वर्ष 2005 के बाद के चरमपंथी हमलों पर नज़र डालें- वे चाहे दिल्ली के बाज़ार हों, समझौता एक्सप्रेस हो, मुंबई के धमाके हों या हैदराबाद की मक्का मस्जिद पर हमला… सभी में निचले स्तर के कार्यकर्ता तो पकड़े गये लेकिन मास्टरमाइंड हमलों से पहले ही देश छोड़ने में सफल रहे। आतंकी संगठन आजकल इंटरनेट और सेटेलाइट फोन जैसी आधुनिक संचार तकनीक का इस्तेमाल करते हैं लेकिन हमारी खुफिया एजेंसियों के पास तकनीक और स्टाफ की भारी कमी है। आधुनिक मशीनें, प्रशिक्षित स्टाफ, तकनकी विशेषज्ञों की कमी, खुफ़िया सूचनाओं का विश्लेषण न कर पाना भी सबसे कमज़ोर कड़ी है। राज्य पुलिस और अन्य एजेंसियों के बीच समन्वय की कमी भी ऐसी ही कमजोरी है।
आतंकवाद के मामले में भारत हमेशा से अलग थलग रहा है। 9/11 की घटना के बाद इतना हुआ कि कई आतंकवादी संगठनों पर पाबंदी लगी। पाकिस्तान पर भी दबाव बना कि वो इन आतंकी गुटों की सहायता करना बंद करे। यही कारण रहा कि पाकिस्तान से प्रायोजित आतंकवाद का भारतीय संस्करण सामने आने लगा और बंगलादेश जैसे दरिद्र देश भी इस्तेमाल होने लगे। अंतर्राष्ट्रीय पटल पर खुद को पाक साफ दिखाने के वास्ते पाकिस्तान ने ऐसे आतंकी संगठन बनाए जो सुनने और समझने में भारतीय संस्करण लगते हैं। जैसे इंडियन मुजाहिदीन, इस संगठन का भारत या भारतीय नागरिकों (मुस्लिमों) से कोई मतलब नहीं है। यह विशुद्ध रूप से पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित संगठन है और इसके संचालक बंगलादेश में बैठे हैं। 2008 में हुई आतंकी घटनाओं में यह संगठन उभरा था। पाकिस्तान दुनिया के देशों को कहता है कि यह संगठन तो भारतीय है। क्योंकि 9/11 के बाद हालात बदले और पश्चिमी देश यह मान गये कि भारत आतंकवाद से प्रभावित है, लेकिन फिर भी पश्चिमी देश भारत के मसले को लेकर गंभीर नहीं हैं। अमेरिका आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान को जो आर्थिक सहायता के डॉलर देता है उनका इस्तेमाल भारत के खिलाफ किया जाता है। खुद अपदस्थ जनरल परवेज मुशर्रफ इस बात को पिछले दिनों एक साक्षात्कार में स्वीकार कर चुके हैं।
बहरहाल, पश्चिमी देश भले ही भारत के मामले को लेकर गंभीर नहीं हैं लेकिन भारत को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी। आतंकवाद के मोर्चे पर जो नाकामी है, वो हमारी कमी है। इतना जरूर है कि 26/11 के बाद खुफिया एजेंसियों के साथ राज्यों का सहयोग और समन्वय बढ़ा है, लेकिन आतंकवाद के खिलाफ मोर्चे पर लड़ाई को लेकर राजनीतिक तौर पर देश कमजोर हुआ है। क्योंकि वोट बैंक की राजनीति इसमें आ गई है। बड़े और कठोर कदम उठाते हुए इस पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है कि कहीं इससे वोट बैंक तो प्रभावित नहीं होगा। यही वजह है कि मुंबई में शिवसेना ने शाहरुख से नूराकुश्ती की और जनता से पूछा जाता है कि ईडियट कौन? आतंकवाद जैसे गंभीर मसले पर पूरे देश की जनता को जागना होगा और आतंरिक सुरक्षा को मजबूत करने में राजनीतिक लोगों को भी जबान और विवादित मुद्दों पर लगाम लगानी होगी। मुझे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त शायर डा. नवाज़ देवबंदी की एक नज़्म याद आ रही है। आप भी पढ़िये और चिंतन-मनन कीजिये… इस नज़्म (कविता) के ज़रिये कुछ सवाल आपके लिए छोड़ता हूं-
सोचो! आखिर कब सोचेंगे?
दरहम बरहम दोनों सोचें
मिल जुलकर हम दोनों सोचें
जख्म का मरहम दोनों सोचें
सोचें पर हम दोनों सोचें
घर जलकर राख हो जाएगा
जब सब कुछ खाक हो जाएगा
तब सोचेंगे?
सोचो! आखिर कब सोचेंगे
ईंट और पत्थर राख हुए हैं
दीवार ओ दर राख हुए हैं
उनके बारे में कुछ सोचो
जिनके छप्पर राख हुए हैं
बे बाल-ओ-पर हो जाएंगे
जब खुद बेघर हो जाएंगे
तब सोचेंगे?
सोचो! आखिर कब सोचेंगे?
फाके से मजबूर मरे हैं
मेहनतकश मज़दूर मरे हैं
अपने घर की आग में जलकर
गुमनाम और मशूहर मरे हैं
एक कयामत दर पर होगी
मौत हमारे सर पर होगी
तब सोचेंगे?
सोचो! आखिर कब सोचेंगे?
मां की आहें चीख रही हैं
नन्हीं बाहें चीख रही हैं
क़ातिल अपने हमसाये हैं
सूनी राहें चीख रही हैं
रिश्ते अंधे हो जाएंगे
गूंगे बहरे हो जाएंगे
तब सोचेंगे?
सोचो! आखिर कब सोचेंगे।
कैसी बदबू फूट रही है
पत्ती पत्ती टूट रही है
खुशबू से नाराज़ हैं कांटे
गुल से खूशबू रूठ रही है
खुशबू रुखसत हो जाएगी
बाग़ में वहशत हो जाएगी
तब सोचेंगे?
सोचो! आखिर कब सोचेंगे?
टीपू के अरमान जले हैं
बापू के अहसान जले हैं
गीता और कुरआन जले हैं
हद ये है इन्सान जले हैं
हर तीर्थ स्थान जलेगा
सारा हिंदुस्तान जलेगा
तब सोचेंगे?
सोचो! आखिर कब सोचेंगे?
(डा. नवाज़ देवबंदी से संपर्क करें- +91 9219181271)
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