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बुधवार की रात एक न्यूज़ चैनल पर ख़बर गर्म थी कि मुंबई पुलिस ने शहाबुद्दीन नाम के एक कमसिन लड़के को पकड़ा जो चैन स्नैचिंग करता था। उसने यह क़दम दो माह पहले अपनी मां की बीमारी की वजह से सबसे पहले उठाया था।
इससे पहले दिन में मेरी मुलाक़ात अपने एक प्रोफेसर मित्र डा. सुरेंद्र निशचल से हुई। महाविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ाते हैं और आजकल किशोरों में मानसिक प्रभाव पर शोध कर रहे हैं। मुलाक़ात के दौरान उन्होंने कुछ चौंकाने वाली बातें बताईं। सहारनपुर जैसे छोटे शहर के कुछ पब्लिक स्कूलों में पिछले साल उन्होंने टीनेजर्स की साइकोलोजिकल कांउसलिंग के शिविर लगाये थे। पहले दिन दो चार बच्चे आये लेकिन अगले दिन इनकी तादाद 20 हो गई। तीसरे दिन से कई कक्षाओं के तमाम बच्चे शिविर में काउंसलिंग के वास्ते पहुंचने लगे। स्कूल प्रबंधन भी परेशान कि यह प्रोफेसर न जाने कौन सी दुकान खोल बैठा है और तुर्रा यह कि स्टूडेंट्स को क्लास छोड़ने का बहाना चाहिए। खैर मुद्दे की बात यह कि शिविर में टीनेजर्स लड़के, लड़कियों ने अपनी परेशानियों के ऐसे चौंकाने वाले राज़ खोले और मशविरा किया कि मां-बाप जान जाएं तो शर्म से गर्दन झुक जाए।
11वीं क्लास के एक बच्चे ने तनाव से मुक्त होने की सलाह मांगी। प्रोफेसर ने तनाव का कारण जानना चाहा तो बच्चे ने बेहद आत्मविश्वास के साथ अपनी बात रखी, ‘सर! मैं 40 हज़ार रुपये का क़र्ज़मंद हूं।’
कर्ज़ कैसे हो गया? उसने जवाब दिया, ‘दोस्तों को किसी न किसी बहाने से आए दिन पार्टी चाहिए। मेरे पास पैसे नहीं होते और दोस्त लोग रेस्टोरेंट की टेबल पर ही मुझे बतौर कर्ज़ पैसे देते हैं और हाथों हाथ खर्च हो जाते हैं। घर से भी कई बार पैसे चुराये। कर्ज़ चुकाने के वास्ते मम्मी के ज़ेवर भी चुराये और तीन दिन तक उन्हें छुपाए रखा लेकिन बेचने की हिम्मत नहीं कर पाया। घर वालों को बता दूंगा तो घर से बाहर निकाल दिया जाउंगा। अब तो आत्महत्या करने का मन होने लगा है।’ इस बच्चे के मां-बाप को काउंसलिंग शिविर में बुलाकर समझाया और बच्चे को तनावमुक्त किया गया। 10वीं क्लास की लड़की अपनी सहपाठिनों की तुलना में अपनी शारीरिक संरचना को लेकर हीनभावना से ग्रसित थी। इसी तरह 9वीं कक्षा के एक छात्र ने दोस्तों से शौक़ शौक़ में तमंचा तो ले लिया लेकिन उसी दिन से तनाव में था। 15 साल की छात्रा आठ माह से लगातार गर्भनिरोधक गोलियों का सेवन कर रही थी। शारीरिक संबंध और गर्भनिरोधक टेबलेट्स दोनों में से किसी एक को छोड़ने की बात से ही वह तनावग्रस्त रहती थी।
पिछले ही सप्ताह देहरादून के इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूट के छात्र ने ऊंची इमारत से कूदकर आत्महत्या की। वह घर पर बिना सूचित किये अपने दोस्त से मिलने नैनीताल जा पहुंचा था। मां-बाप ने डांटा तो हास्टल पहुंचकर दोस्तों को पहले पार्टी दी और फिर छत से कूद गया। मुंबई में भी पिछले दिनों ऐसी ही आत्महत्याओं की ख़बरें चैनलों पर खूब दिखीं। रात को बिस्तर पर सोने से पहले उक्त सारी कड़ियां चलचित्र की भांति ज़हन में चल रही थीं कि दो अलग-अलग बेनामी शेर याद आ गये।
पहला शेर था-
हालात ने बच्चों को भी संजीदगी दे दी
सहमे हुए रहते हैं शरारत नहीं करते।।
और दूसरा शेर था-
हमारे अहद के बच्चों को क्या हुआ लोगों
खिलौने छोड़कर चाकू खरीद लाये हैं।
मुझे लगा कि पहले शेर की पंक्तियां किसी छप्पर के नीचे की दास्तां हैं और दूसरे शेर की पंक्तियां किसी के स्टेटस सिंबल का मज़ाक़। आर्थिक मंदी और महंगाई के इस दौर में भी पहले शेर की पंक्तियां मौजूं हैं लेकिन दूसरे शेर की पंक्तियों का तजुर्बा स्टेटस सिंबल से दौड़ में काफी पिछड़ गया है। मैंने रात में ही अपने प्रोफेसर मित्र डा. निशचल से पूछा, ‘आपने काउंसलिंग शिविर का निचोड़ क्या निकाला था? किशोर मन क्यों व्यथित और मानसिक तनाव में है?’ उन्होंने मोटे तौर पर इसके दो कारण गिनाये। 1. फिज़िकल चेंज से गुज़रना और 2. आइडेंटिटी क्राइसेस। टीन ऐज में बच्चे में शारीरिक परिवर्तन आ रहे होते हैं। ऐसे में लड़के लड़कियां अपने दोस्तों से अपनी शरीरिक संरचना की तुलना करते हैं। तुलनात्मक रूप से ख़ुद को कमतर मानने वाले हीन भावना से ग्रसित होकर तनाव में जीते हैं। इसी दौर में किशोर किशोरी अपनी पहचान को लेकर चिंतित रहते हैं। उनकी सोच में स्थायित्व नहीं होता। वे घर से अलग अपनी निजी लाइफ़ और प्राइवेसी चाहते हैं। जिसके लिए फैमिली सपोर्ट ज़रूरी होती है। आम तौर पर मैटीरियल कंफर्ट तक केंद्रित रहती है, साइकोलोजिकल कंफर्ट की तरफ ध्यान नहीं पहुंच पाता है और किशोर मन खुद को दोस्तों की तुलना में पिछड़ा मानने लगता है। इसका सबसे बड़ा कारण एकाकी परिवार और सबसे बड़ा इलाज पारिवारिक स्तर पर ही बच्चों की काउंसलिंग है। शायद यही वजह है कि इंटरनेशनल स्टैंडर्ड के तमाम स्कूलों में एक नहीं, बल्कि 5-5 साइकोलोजिस्ट नियुक्त हैं जो हर रोज़ बच्चों से रू-ब-रू होते हैं। बहरहाल, बात नई पीढ़ी की थी तो इतना ज्यादा सोचने पर मजबूर होना पड़ा। वर्ना बचपन में एक वाक्य तो अक्सर सुना था कि किशोर मन उस बेल के समान होता है जो किसी दीवार या किसी भी लटकी हुई चीज के सहारे ऊपर चढ़ जाती है। मुंबई का शहाबुद्दीन शायद झपटमारी के सहारे को अपनी मां के उपचार के वास्ते सहज समझ बैठा था। शहाबुद्दीन ही क्यों ऐसे बहुत सारे बच्चे किशोर कारागारों में भरे पड़े हैं। बड़ा सवाल ये है कि पब्लिक स्कूल भी इंटरनेशनल स्टैंडर्ड के स्कूलों की तर्ज पर आज नहीं तो कल साइकोलोजिकल काउंसलर नियुक्त कर ही लेंगे, लेकिन इनके लिए कौन सोचेगा जो स्कूल जाने के बजाय छोटे-मोटे अपराधों की राह पर निकलने की शुरूआत कर चुके हैं?
-एम. रियाज़ हाशमी
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